रात की लडाई

सवेरे की तलाश में
सारी रात इंतज़ार किया
कोई बात उठ जाती कभी
और उस बात से फ़िर कोई और बात
पर मुआ सवेरा आने का नाम ही न ले

अब और लड़ने की, कुछ करने की ताकत ही कहाँ बची है
चुप हो गए सब , और आँखे भीच ली
सोचा की जब नींद खुलेगी तो सामने सवेरा होगा
पर मुई नींद आने का नाम ही न ले

एक करवट, दूसरी , और आँखे भीचे सोने का दिखावा करना
घड़ी , घड़ी तारे देख सोचना
और हर पल के साथ , भरी हो गया
आने वाले पल को काटना
मिश्किल से फ़िर किसी ने कुछ कहा
न चाहते हुए भी शुरू हो गई बेमानी बातें

लगा की सब किसी चीज़ से भाग रहे थे
सुबह सामने किसी कइसी चादर से ढकी है
और हमने मन ही नही बनाया है उसे हटाने का
क्या सचमुच लड़ने की ताकत नही है अब , पर बिना लड़े
शायद सुबह नसीब न हो

Comments

abhishek said…
Dude Its Really an amazing Poem. An its really close to my heart.

u r the best buddy.

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