सोच घास पे बैठ

भागते भागते जब थक जाती है ,
तो कहीं, घास पे बैठ ढूंढती है
वजूद , आरजू , दर्द जैसे बेमाने है
कुछ सुने , कुछ अनसुने , पर एक  जैसे अफसाने है

और आस पास सिर्फ़ भीड़ , अलग अलग लोग नज़र नहीं आते
खली खोखले और सच कहूं तो मेरी तरह

अभी ठीक से बैठ , साँस भी न ली थी उसने
कि फ़िर उठी , और भागने लगी
... क्या सवाल करता मैं और क्या जवाब दे वोह
भागना तो पड़ेगा ही
यही उसकी खवहिश है

क्योंकि घास पे बैठ तारों पे अपना नाम ढूंढ़ना
वोह शायद नही चाहती

मेरे पास बैठ ज़िन्दगी
दूर .... बहुत दूर होता जा रहा हूँ मैं
खुदसे , तुझसे ,
फसा हु इस दौड़ में जो बेमकसद बेमाने सी लगती है

थोडी देर तो मेरे पास बैठ ज़िन्दगी
याद तो होगा ही तुझे , जब हम तनहा साथ होते थे
मुझे तुझसे कोई शिकायत नही ।
कोई तमन्ना भी नही ,
शायद अब इसी लिए तुम्हारे साथ और दौड़ना मुझे अजीब सा लगता है ।

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