आज क्षितिज को छु लेना है

आस पास कुछ नम आँखें
बोझिल चेहरे ।
सड़कों पे चलते वे सारे
मन में न जाने क्या भीचे
भाग रहे उस क्षितिज के पीछे ,
दौड़ रहे थे , दौड़ रहे हैं
और चुप्पी से कहते
आज क्षितिज को छू लेना है

हर स्वप्न को पूरा करने ,
कल्पना उड़ान लेती थी
और दूर दीखते नए आयाम ,
विवश करते उठने को ।
और क्षितिज ..मरीचिका और दूर और दूर जाता
पुनः स्वयं को उस भट्ठी में झोंक वे प्रायः चिल्लाते
आज क्षितिज को छु लेना है

और यूँ लगता,
क्षितिज, अविजित, दंभ में करता हुआ अट्टहास
प्रतीक्षा में था उनके थकने की

पर उनके चेहरे तो हारे न लगते
न दीखता कोई मायूस
थी आंखों में वही चमक
और निरंतर दौड़ रहे थे

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