शीर्षक विहीन (Untitled)

हाथों में लिए भाग रहा था ,
जाने कहाँ छूट गया इस आपाधापी में
वो एक सपना को जो खुद के लिए बचाया था
लो फिर टूट गया इन आँखों में

कभी सोचने लगता हु
कुछ यादें धुंधली सी अभी हैं
और एक लट्टू छोटा सा जिसे खेलते खेलते
सो जाता ज़मीन पे दोपहरी में

और उठ भागना उस बिल्ली के पीछे
जिसे मालूम ही नहीं उसका अपराध
और मन ही मन मुस्काना
उसकी दबती दम पे ,

खो गया मैं खुद से
जाने कब फिर से मिल पाउँगा दोबारा
और आँखों में था एक सपना
वोह अब टूटा सा लगता है

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