पहला पोपट!

बात उन दिनों की है जब हम नये-नये पुणे शहर में आये थे, उम्र भी उतनी थी की अधिक जानकारी नहीं थी और न ज़रुरत | 

नौकरी महाराष्ट्र में लगी थी तो  मराठी भाषा से दो-चार होना भी स्वाभाविक था | एक बार यूँ ही बातों बातों में एक मित्र न कहा की "बहुत पोपट हो गया " , और उत्सुकता वश हमने पुछा की यह क्या होता है , समय के आभाव के कारण मित्र ने कहा की बाद में बताएंगे | और फिर सभी इस बात को भूल गए | 

एक बार येरवाड़ा से पुणे स्टेशन जाने के लिए बस में चढ़े ! हमेशा की तरह बहुत भीड़ थी, पर कुछ उपरवाले का आशीर्वाद और कुछ शरीर का लचीलापन की हमें सीट मिल गई | 

जो पुणे नहीं आते जाते उनको बता दू की, बस की सीट मिलना,  लोकसभा की सीट मिलने जितना मुश्किल नहीं होता, न हि शादीशुदा पुरुष को अपने ही घर में टीवी का रिमोट मिलने जितना मिश्किल होता है | पर अपनेआप में एक छोटी मोटी उपलब्धि के रूप में तो गिना हि जा सकता है | पर कामयाबी पा लेना एक बात होती है, और उसपे टिके रहना दूसरी | ठीक अगला स्टॉप आते ही एक वृद्धा बस में चढ़ी और नैतिकता के कारण हमने अपनी सीट उनको दे दी | 


आगे का वाकया सुनाने से पहले एक और जानकारी देना चाहते हैं | जब बात मराठी की आती है तो उन दिनों हमे मराठी का सिर्फ एक वाक्य ही आता था : 

"मला मराठी येत नाही " | 


महिला ने सीट मिलने की ख़ुशी में हमे मराठी में धन्यवाद दिया, हमने भी मुस्कुरा के स्वीकार कर लिया | अभी एक मिनट भी नहीं गुज़रा था  की उन्होंने फिर से हमारी ओर देख कर कुछ मराठी में कहा, न समझ में आने पर भी हमने हाँ की मुद्रा में सर हिला दिया | ऐसे ही दो स्टॉप और गुज़र गए परन्तु वह मेरी ओर देख कुछ न कुछ मराठी में कहती रही  | 

बस आगे बढ़ी और कुछ जगह होने पर मैंने एक दूसरी सीट लपक ली, परन्तु लपकने में अधिक फुर्ती न दिखा पाने के कारण विन्डो सीट जाती रही | उस पर एक युवती बैठ गई | मुझे लगता है अलग से बताने की कोई आवश्यकता नहीं है की विंडो सीट , आम  सीट मिलने से बड़ी उपलब्धि है | परंतु इससे पहले की हम अपनी छोटी सी हार का शोक मन पाते, वृद्धा ने फिर से हमारी ओर देखा और मराठी में एक और गद्यांश सा पढ़ दिया |  इस बार हमसे रहा न गया , और मित्रो द्वारा सिखाया मंत्र हमने पढ़ दिया :-

                        "मला मराठी येत नाही | "

वह बड़ी ज़ोर से हसीं और उन्होंने ने हिंदी में कहा , "आप के बगल में मेरी बेटी बैठी है मैं उससे बात कर रही हूँ " | 

मुझे लगा कि शायद पहले भी उनकी बेटी मेरे बगल में ही खड़ी थी | मजे की बात है की उसने अपनी माँ कि किसी बात का कोई ज़वाब नहीं दिया | पर बस में किसी को सफाई देने से कोई फायदा नहीं होने वाला था , हमारा मज़ाक तो उड़ चूका था | 

राहत की बात यह थी की अगला स्टॉप पुणे स्टेशन आ चूका था, और अजीब स्थिति से बचने के लिए  हमने भी भागने में कोई देरी न दिखाई |

बाद में मराठी के जानकार मित्र ने बताया की इसी को "पोपट होना" कहते हैं  | 


Comments

Anonymous said…
Good Very Good

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