बादल
आज बादल नही थे,
और अमावस भी थी।
और था मैं शहर , और सभ्यता से दूर।
आसमान में असंख्य तारे टिमटिमा रहे थे।
इतने सारे एक साथ मैं पहले कभी नहीं देखे।
कभी भी नहीं।
अपेक्षा थी कि इस दृश्य से मिलेगा आराम,
पर जाने क्यों मुझे भय का आभास हो रहा था।
उस बियाबान में एक भी झींगुर नही था जैसे,
याद आया कैसे
जब अपने गांव जाया करता ,
तो रात में वो आवाजे करते।
आज ऐसा कुछ न था,
इतना सन्नाटा पसरा हुआ था ,
जैसे मानो किसी मरुस्थल से भी हीन ,
न एक जानवर आवाज,
हवा की आवाज भी नही।
इतनी शांति मैने कभी नही सुनी।
घबराहट धीरे धीरे बढ़ती जा रही थी,
अब एक ध्वनि थी ,
स्वयं के हृदय की |
ऐसा लगा की पौ फटने को है ,
और दिखा एक बादल भी |
जान में जान आई |
फिर भोर तो हुई ,
पर मैं सो गया कुछ देर उस घास पे |
और जब नींद खुलेगी तो ,
जायेंगे अधीरता से , सभ्यता की और |
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